केंद्रीय सरकार ने 18-22 सितंबर तक पार्लियामेंट का एक विशेष सत्र बुलाया है जिसमे सूत्रों के अनुसार “एक राष्ट्र, एक चुनाव (One Nation, One Election) ” के ऊपर एक विधेयक लाये जाने कि संभावना है। केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री प्रल्हाद जोशी ने गुरूवार (31 अगस्त) घोषणा की कि संसद का पांच दिवसीय विशेष सत्र 18-22 सितंबर तक बुलाया जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई मौकों पर देश में लोकसभा और सभी विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव (One Nation, One Election) कराने कि वकालत की है। पीएम मोदी ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि भारत में हर साल कई राज्यों के विधानसभा चिनाव होते हैं और हर पांच साल में लोकसभा के लिए भी मतदान कराये जाते हैं जिसके कारण चुनाव आयोग आचार संहिता लगा देता है और महत्वपूर्ण विकास कार्यों में रुकावट आती है।
“एक राष्ट्र एक चुनाव (One Nation One Election)” के पक्ष में एक और बड़ा तर्क यह है कि इससे कच पर लगाम लगेगा। जब 1951-52 में लोकसभा का पहला चुनाव हुआ, तो लगभग 53 पार्टियों ने चुनाव लड़ा, जिसमें लगभग 1874 उम्मीदवारों ने भाग लिया और चुनाव खर्च करीब 10.5 करोड़ रुपये था। 2019 के लोकसभा चुनावों में, 610 राजनीतिक दल मैदान में थे, लगभग 9,000 उम्मीदवार ने अपने भाग्य को आजमाया और लगभग 60,000 करोड़ रुपये (एडीआर का रिपोर्ट) का खर्च आया। यह सिर्फ चुनाव आयोग द्वारा किया गया खर्च है और इसमें राजनीतिक दलों का ब्यौरा एवं सुरक्षा बलों के साथ साथ अन्य खर्च शामिल नहीं है।
“एक राष्ट्र एक चुनाव (One Nation One Election)” का मतलब है की पूरे देश में एक चुनावी प्रक्रिया होगी जिसके माध्यम से सभी राज्यों में विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ कराए जायेंगे। भारत की स्वतंत्रता के बाद पहले दो दशकों में लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ होते थे। भारत में 1952, 1957, 1962 और 1967 में एक साथ लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव कराए गए थे।
लेकिन 1960 के दशक के अंत में कई राज्यों के विधानसभा अपने निर्धारित पांच साल के समय से पहले या तो भंग कर दिए गए या वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया गया। इस कारण चुनाव अलग अलग समय पर होने लगे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने 1975 में देश में आपातकाल लगा दिया और लोकसभा के चुनाव का समय भी बदल गया। जनता पार्टी के सरकार जिसने 1977 में केंद्र में सत्ता संभाली तीन साल के भीतर ही गिर गयी और लोकसभा चुनाव जो पांच साल बाद होने थे, 1980 में करने पड़े।
1983 में चुनाव आयोग ने पूरे देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने की वकालत की, लेकिन तत्कालीन केंद्र सरकार ने इसे खारिज़ कर दिया। विधि आयोग ने भी 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने का तर्क दिया था।